Monday 21 May, 2012

राजनीति या फूटबाल का खेल

आज बीते कुछ बर्षों मे राजनीति एक खेल सा बन गया है जहा हम सुनते है की एक नेता ने दूसरे के पाले मे गेंद डाल दी।मतलब एक दूसरे पर तोहमत लगाना, एक दूसरे को फंसाना।और सत्ता पाने की ऐसी लालच की मत पूछिये।पक्ष हो या विपक्ष बस एक दूसरे की कामिया गिनने मे लगे है और यहा तक की इन्होने मान लिया है की दूसरे अगर गलत है तो इन्हे भी गलती करने की आज़ादी या खुली छूट मिल जाती है।अगर कोई माननिए घोटाले मे धरे जाते है तो उनका टका सा जवाब होता है की विपक्ष अपनी गिरेबान मे झाँके।उनके राज मे भी तो ऐसा होता था।पर साहब आपको जिस जनता ने वोट दिया उसे भूल गए।फूटबाल के खेल मे भी कुछ ऐसा ही होता नजर आता है।क्षण मे बॉल इस खिलाड़ी से उस खिलाड़ी के पास।खिलाड़ी तो ये भी है राजनीति के धुरंधर।और खेल मे हारती है सिर्फ जनता।मूक दर्शक बन कर।हो हल्ला तो होता है पर यहा दर्शक के बजाए खिलाड़ी हल्ला करते है।क्या यह समस्या अंतहीन है?
मिलते है अगले पोस्ट में।मुझसे facebook पर मिले https://www.facebook.com/mrmanishchandramishra
मेरा दूसरा ब्लॉग है www.hellomishra.jagranjunction.com

www.hellomishra.jagranjunction.com

क्या हम आज़ाद हैं?

ये तो बचपन से पता है हम आज़ाद है।हम आज़ाद हो या न हो हमारा देश आज़ाद है।हमारा देश भारत,इंडिया,आर्यावत,हिंदुस्तान हे ईश्वर कोई एक नाम क्यो नहीं है हमारे देश का।चलिये मान ले की हमारे देश का नाम भारत है।नहीं भारत नहीं इंडिया मान लेते है।जब देश का नाम निश्चित करने मे इतना गोलमाल लगा तो समझ सकते है की मेरी मानसिकता भी गुलामो की है।जी हाँ मै भी गुलाम हू हर उस भारतीय की तरह,जिनको अपने देश का एक नाम पता नहीं,एक आधिकारिक नाम।
चलिये इस बात को जाने दीजिये क्योकि हमारे गृह मंत्रालय के पास भी इसकी जानकारी नहीं की हमारे देश का क्या नाम है।(हाल मे ही RTI के जवाब मे बताया गया था)।हमारे देश की एक राष्ट्रभाषा है।बहुतायत लोग आज भी उसके बल पर एक दूसरे से संवाद स्थापित करते है।अजी मे हिन्दी की बात कर रहा हूँ।हिन्दी को आज़ादी के बाद मातृभाषा का दर्जा मिला।आज़ाद देश की अपनी आज़ाद भाषा।यू तो भारत मे बहुत सारी भाषा है जिनका प्रयोग होता है और ये सारी भाषाएँ देशी है।ये अँग्रेजी तो विदेशी भाषा है।जब हम गुलाम थे तब अँग्रेजी हमारे आका की भाषा थी।पर क्या आज आज़ाद भारत मे हमारी मानसिकता आज़ाद हुई है।क्या हमारी भारतीय भाषाओ पर अंग्रेज़ियत हावी नहीं है।क्या हमे अपने देश मे अँग्रेजी की वैशाखी पर चलने को मजबूर नहीं किया जाता।किसी के प्रतिभा का आंकलन उसके अँग्रेजी जानने या न जानने पर हम कब तक करते रहेंगे।
पता नहीं कब तक करेंगे।शायद ये अंतहीन प्रतीक्षा हो।
हमारा देश जो की एक पराधीन मानसिकता का आज़ाद देश है।यहा पर कोर्ट मे हिन्दी मे बहस करने की मांग पर जुर्माना लगा दिया जाता है,हिन्दी के विद्वानो को नौकरी नहीं मिलती।
चलिये मै भी अँग्रेजी जनता हू और अपने इस पराधीन मस्तिष्क को ये कह कर समझा लेता हूँ की अँग्रेजी जानना प्रगति की निशानी है।पर जानना और उस भाषा की पराधीनता स्वीकार करने मै जमीन आसमान का फर्क है।
सच तो यह है की हम पराधीन है अंग्रेज़ियत के और अपने मूढ़ मस्तिष्क को स्वाधीन होने का एहसास करा रहे है।
अब सिर्फ अँग्रेजी पे पूरा दोष डाल दूंगा क्या।नहीं कुछ और भी है जिसके बिना हम नहीं चल सकते।
नेता नेतागिरी लोकतन्त्र भ्रष्टाचार।यकीन मानिए अगर आप पहले के 3 शब्द नेता नेतागिरी लोकतन्त्र लिखेंगे तो कीबोर्ड भ्रष्टाचार खुद ब खुद टाइप कर देगा।
ये भ्रष्टाचार बरा कारामाती शब्द है जनाब।इसकी महिमा अपरमपार है।इसे भारतीय लोकतन्त्र नौकरशाही को चलाने की मूल शक्ति के रूप मे जाना जाता है।हम इसके बिना एक कदम नहीं चल।जनम से लेकर उसके अंतिम संस्कार के बीच जिंदगी की हर जद्दोजहद मे एक भी काम इस अलौकिक शक्ति के बिना नामुमकिन है।
अब मे गर्व से कह सकता हूँ की मै आज़ाद देश का गुलाम नागरिक हू।
अगले पोस्ट मे मिलते है किसी अंत हीन समस्या को लेकर।