Friday 6 July, 2012

भारतीय मीडिया की कूपमंडूकता

भारत मे मीडिया का स्थान लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप मे दिया गया है।यहा चौथे का मतलब ये बिलकुल नहीं है की मीडिया का नंबर चौथा आता है लोकतन्त्र को मजबूत करने में।लोकतन्त्र के चारो खंभो मे अगर एक भी खंभा कमजोर निकला तो हमारा ये नया नवेला लोकतन्त्र औंधे मुंह गिर जाएगा।हमारे संविधान मे कुछ ऐसी धाराएँ है जिनमे मीडिया के कर्तव्यो के बारे में बताया गया है।लेकिन हमारे देश की मीडिया को सिर्फ अपने अधिकारों के बारे मे पता है।पर अपना वो कर्तव्य भूल गए।हमें पता है की हमारे देश भारत मे आस्था और अंधविश्वास के बीच की पतली लकीर है।और मीडिया की जिम्मेवारी बनती है की देश के लोगो के बीच वैज्ञानिक सोच पैदा की जाए।क्योकि आस्था के नाम पर जो लूट मची है उसको मिटाना मिटाना एक विकषित लोकतन्त्र के लिए अत्यंत आवश्यक काम है।ये ज़िम्मेदारी मिली थी मीडिया को की देश मे वैज्ञानिक सोच विकषित हो पर हमारे देश की मीडिया चाहे वह किसी भी प्रकार की हो एलेक्ट्रोनिक या प्रिंट या वेब सब संविधान के मूल भावना के उलट लोगो मे अवैज्ञानिक सोच पैदा कर रहे है।पिछले कुछ दिनों के घट्नाक्रमों को देखे तो एलेक्ट्रोनिक मीडिया ने इन सब चीजों को बढ़ चढ़ कर दिखाया और प्रचारित किया।हम जानते है की हमारे देश का मीडिया खासकर एलेक्ट्रोनिक मीडिया के पास अधिक अनुभव नहीं है और इसे हम बचकानी हरकत मन सकते है।पर समय के साथ इन हरकतों मे इजाफा ही हुआ है।हमारे देश की बड़ी समस्या यह है की हम भारतीय लोग विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रो के लोग अंधविश्वास वाली बाटो पर जल्दी यकीन कर ल्र्ते है और किसी घटना के वैज्ञानिक पक्ष को अनदेखा कर देते है।इस तरह के समाज मे अगर मीडिया अपनी ज़िम्मेदारी भूल जाए तो चिंता की बात तो है।पहले न्यूज़ चैनलों पर टोटके,टोना,उल जुलूल उपाय वाले विज्ञापनो और अलग अलग तरह के प्रोग्राम दिखा कर लोगो को भ्रमित किया जाता था।कुछ दिन पहले तो निर्मल बाबा के विज्ञापन को न्यूज़ की तरह प्रसारित कर देश के भोली भाली जनता को कुछ न्यूज़ चैनलों ने बाबा के चंगुल मे फँसने को विवश किया।विवश शब्द का प्रयोग मैंने इसलिए किया क्योकि जनता का न्यूज़ चैनलों पे जो भरोसा है उसका नाजायज फाइदा इन्होने उठाया और जनता को गुमराह किया।इन सब घटनाओ से तो इतना साबित हो गया की देश के कुछ मीडिया संस्थानो को अपने मूल उद्देश्यों से ज्यादा अपने जेब की चिंता है।चलिये मन लेते है की उपरोक्त बातें मीडिया की मजबूरी है॰विज्ञापन की मजबूरी ,टीआरपी की मजबूरी।पर यहाँ मै एक घटना का उल्लेख करना चाहूँगा।हमारे देश की मीडिया चाहे वह प्रिंट हो या एलेक्ट्रोनिक सबने ईश्वरीय कणों वाले समाचार को तोड़ मरोड़ पेश किया है वह निश्चय की बेहद शर्मनाक और बचपने वाली बात है।मीडिया को देश के नागरिकों को भौतिक के एक विशाल अनुसंधान को ईश्वर की उत्पति और कण कण मे भगवान वाली बात बता कर भ्रामक स्थिति नहीं पैदा करनी चाहिए थी।कुछ मीडिया को छोरकर सबने अपनी कूपमंडूकता अर्थात कुएं के मेढक वाली छवी बनाई है।और अब मीडिया को अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुये देश से माफी मांग कर एकबार फिर से देश मे वैज्ञानिक सोच पैदा करने कोशिस करनी चाहिये।आज विडम्बना यह है की विज्ञान से पढ़ने वाले विद्यार्थी और शिक्षक तक अवैज्ञानिक सोच रखते है।अगर हम अपने देश से अंधविश्वास को खतम कर पाये तो यह हमारे देश के विकाश की गति मे सहायक होगा।और देश के मीडिया को अपनी ज़िम्मेदारी को समझना होगा।और यह काम सिर्फ एक साधारण पत्रकार से नहीं हो सकता या हम किसी संपादक को इसका जिम्मेदार नहीं बता सकते।इस कम को करने मे मीडिया प्रतिष्ठानो के मालिको को भी आगे आना होगा।और देश मे चल रह अंधविश्वास को पोशित करने वाले हर विज्ञापन और समाचार को अपने से दूर करना होगा।"भारतीय मीडिया की कूप मंडूकता" शीर्षक और इसके प्रेरणा श्रोत आशीष देवराड़ी(https://www.facebook.com/deorari) जी है।आप मुझसे फेसबुक पर भी मिल सकते है।लिंक है https://www.facebook.com/mrmanishchandramishra