Saturday, 14 September 2013

हिन्दी पर रोना कैसा ?

- मनीष चन्द्र मिश्र

हिन्दी दिवस पर टोटकों का सिलसिला फिर जारी हो गया है. जगह-जगह हिन्दी की चिंता में संगोष्ठियों का आयोजन किया जा रहा है. हिन्दी के ठेकेदार और महंथ अपना-अपना रोना रो रहे हैं. कहां कोई हिन्दी के कम हो रहे पाठकों पर चिंता जता रहा तो कही किसी को इसमें साजिश की बू आ रही. हिन्दी की चिंता में जीने और मरने वाले लोगों ने अंग्रेजी और कुछ अन्य भाषाओं को गरियाने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा दी. हिन्दी भक्तों के विलाप को देखते हुए सोचना स्वभाविक है कि क्या हिन्दी की स्थिति सच में इतनी बुरी है जितना देखा और समझा जा रहा है ? कई मामलों में हिन्दी दिनों-दिन समृद्ध हुई है. एक युवा जो हिन्दी को जानता है साथ ही दूसरे भाषाओं की समझ भी रखना चाहता है उसके नजर में हिन्दी की स्थिति को समझते हैं.
हिन्दी भाषा उन चंद भाषाओं में से है जो दूसरी भाषा के शब्दों को अपना लेती है. भारतीय भाषा होने के साथ इसमें भारतीयता के गुण भी हैं. अतिथिदेवों भव के सिद्धांत पर हिन्दी ने अंग्रेजी और फारसी जैसे भाषाओं के शब्दों को अपने अंदर इस तरह समेटा कि वह शब्द हिन्दी की होकर रह गई. हिन्दी की समृद्धि को इसके क्षय के रूप में  देखकर हम इसके मूल सिद्धांतों के साथ अन्याय करते हैं. हिन्दी कोई बहुत पुरातन भाषा तो है नहीं. इसके कई और स्वरूप आप ही आएंगे और अभी इसमें कई बदलाव आएंगे. आज के साहित्यकार जिस भाषा को लिखकर उसे एकदम शुद्ध होने का दम भरते हैं दरअसल वह पहले वैसी नहीं थी. समय के साथ बदलते बदलते संस्कृत और अन्य देशज शब्दों को ग्रहण कर हिन्दी समृद्ध होती गई. और इस भाषा में अब कई बदलाव आते रहेंगे. जिसका हमें स्वागत करना चाहिए.
हिन्दी या कोई भी भाषा का मूल उद्देश्य एक दूसरे के बीच संपर्क स्थापित करना होता है.  भाषा के माध्यम से संपर्क जितनी सहजता से स्थापित हो वह उतना ही प्रचलित होता है. हम हिन्दी के संरक्षण के नाम पर अगर इस भाषा को सरल नहीं बनने देंगे तो हिन्दी पाटकों और आम जनों से दूर होती तली जाएगी. हिन्दी के बारे में कुछ लोगों को बड़ी साजिश भी नजर आती है. इन साजिशों में भाषा पर विदेशी आक्रमण जैसी बात भी कही जाती है. लेकिन दरअसल लोगों को हिन्दी से दूर करने में उन साहित्यकारों का भी बड़ा हाथ है जिन्होंने भाषा की शुद्धता के नाम पर इस भाषा को कठिन बनाए रखा.

पिछले एक दशक में हिन्दी ने हर क्षेत्र में अपने सरल सहज स्वभाव से डंका बजाया हैं. देश में लाखों-करोड़ो का विज्ञापन का कारोबार हिन्दी में ही चलता है. घर में टेलीविजन में रोज दिखने वाला विज्ञापन, फिल्म और गानों ने हिन्दी को जन-जन तक पहुंचाया. बंगाल असम और दक्षिण भारत में हिन्दी फिल्मों ने इस भाषा को पहुंचाने का बड़ा काम किया है. इंटरनेट पर युनीकोड के रूप में हिन्दी लिखना इस भाषा की सबसे बड़ी क्रांति के रूप में देखी जाती है. आज हिन्दी भाषी लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है. लोग अन्य भाषाओं के साथ हिन्दी भी जानते हैं. जब हिन्दी के कायाकल्प का समय है तब हिन्दी के लिए रो रोकर चिंता प्रकट करना कुछ समझ नहीं आता. इससे पहले इतिहास में शायद ही कोई समयकाल रहा होगा जब इस भाषा का इतना प्रभाव रहा होगा. तो इस स्वर्णिम समय में हिन्दी के विकास में रोड़ा न बनकर इसे उन्मुक्त रूप में अपना विकास करे दें तो बेहतर होगा. हिन्दी बचाने के नाम पर आपके टोटके शायद ही इसे बचा रही हो. और इसके साथ दूसरी भाषाओं के प्रति दुराग्रह भी ठीक नहीं.

Friday, 13 September 2013

दिल्ली गैंगरेप के फैसले पर द्वंद

- मनीष चन्द्र मिश्र
दिल्ली का शर्म कही जाने वाली और दामिनी के रूप में देश और इंसानियत की अस्मिता को तार-तार करने वाली वारदात के बाद देश में जो गुस्सा फूटा, आज उसके अंजाम का दिन है. मामले की सुनवाई कर रही फास्ट ट्रैक कोर्ट ने अपना फैसला सुनाते हुए चारों आरोपियों को फांसी की सजा सुना दी. इस सजा ने कई बहस को जन्म दिया है. इंसाफ मिलने से जहां देश के लोग खुश हैं वहीं कुछ लोग ऐसे मामलों पर काफी समय से फांसी की सजा का विरोध करते आएं हैं. चाहे वह अफजल-कसाब जैसे दुर्दांत आतंकी को फांसी देने का मामला हो या दामिनी के गुनहगारों की जान लेने के फैसले का मामला हो. तो अब इन बहसों से यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या फांसी की सजा को बंद कर दिया जाए ? सवाल यह भी कि क्या उम्रकैद की सजा या कुछ इससे भी कड़ी सजा ऐसे अपराधियों को ज्यादा सबक देती है ?

मनुष्य को पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीवों में सबसे समझदार माना जाता है. और यह सिर्फ मान्यता ही नहीं सभी मामलों में मनुष्य अन्य जीवों से आगे है. मनुष्य की सबसे बड़ी उपलब्धि समाजिक जीवन जीने और अपने बनाए कानून का पालन करने और किसी निर्धारित तंत्र द्वारा उसका पालन करवाने की भी है.
मनुष्य के विकास के साथ-साथ कानूनों में भी परिवर्तन हुए. पहले कबीले में लोग अपने कानून पर चलते थे. अब समाजिकता बढ़ी तो कानून में हेरफेर के साथ आज 21वीं सदी का कानून हमारे सामने है. अभी कई जगहों पर कानून काफी सख्त हैं. मसलन अरब देशों में इस्लाम के सुझाए कानून चलते हैं जो कुछ हद तक कबीलों की तरह क्रूर हैं लेकिन भारत में ऐसी स्थिति नहीं है. हमारे देश के कानून व्यवस्था में अपराध को देखते हुए सजा देने का विधान है. अपराध की जघन्यता सजा को तय करने में सहायक होती है. तो ऐसे मैं भारत के कानून में सिर्फ जघन्यतम अपरादों के लिए फांसी की सजा का प्रावधान है.



कुछ लोगों की ये दलील भी जायज है कि जान लेने का हक सिर्फ कुदरत को है. वैश्विक स्तर पर मानवाधिकतारियों ने अपने प्रयासों से एक दवाब भी बनाया है कि इस सजा को खत्म किया जाए. लेकिन उन्हें सोचना होगा कि अपराधियों के लिए मानव अधिकारों की बात कर हम उनके अपराध में बढ़ावा तो नहीं दे रहे. कुदरत के नियम की दलील के आधार पर कुछ मामलों में फांसी रोकी जा सकती है लेकिन इस सजा को साफ बंद कर देने से यकीनन अपराधियों के हौसले बुलंद होंगे. इस मामले में भारत के कानून की सराहना करनी होगी. और इस स्थिति में गैंगरेप के बाद क्रूरतापूर्वक हत्या जैसे जघन्य अपराधों में फांसी की सजा जायज है. ऐसे मामलों के अपराधियों पर दया करना पीड़ित के साथ अन्याय होगा और यह मानव जाति के उस कानून के खिलाफ भी होगा जहां लोगों ने मिलकर खुद को कानून के भीतर रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं.