Tuesday 4 September, 2012

शिक्षक दिवस स्पेशल

पदचिन्हों के पीछे-पीछे,
आजीवन चलता जाऊँगा |
जो राह दिखाई है तुमने ,
मैं औरों को  दिखलाऊंगा ||
सूखी डाली को हरियाली , बेजान को जीवनदान दिया |
काले अंधियारे जीवन को , सौ सूरज से धनवान किया ||
परोपकार, भाईचारा,
मानवता, हमको सिखलाई |
सच्चाई की है दी मिसाल ,
है सहानुभूति क्या दिखलाई ||
कान पकड़ उठक- बैठक , थी छड़ियों की बरसात हुयी |
समझ न पाया उस क्षण मैं, अनुशासन की शुरुआत हुयी ||
मुखमंडल पर अंगार कभी ,
आँखों में निश्छल प्यार कभी|
अंतर में माँ की ममता थी,
सोनार कभी, लोहार कभी ||
जीवन को चलते रहना है , लौ इसकी झिलमिल जलती है |
जीवन के हर चौराहे पर, बस कमी तुम्हारी खलती है ||
जीवन की कठिन-सी राहों पर,
आशीष तुम्हारा चाहूँगा|
जो राह दिखाई है तुमने,
मैं औरों को दिखलाऊंगा ||


Sunday 19 August, 2012

लोकतन्त्र का घूंटता गला

कुछ समय से देश की राजनीति में जो उथल पुथल देखने को मिल रहा है इसे लोकतन्त्र के लिए अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता है।लोकतन्त्र जहां जनता की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों को कुछ अधिकार दिये गए है जिस से की शासन व्यवस्था सुचारु रूप से चले पर सत्ता का ऐसा नशा चढ़ा है सत्ताधिसों पर की वह अपने को स्वयंभू मान जनता को लूट रहे है।घोटालो की संख्या में लगातार वृद्धि और भ्रष्टाचारियों पर लगाम लगाने के बजाए उन्हे पोषित किया जा रहा है।समस्याओं से घिरे हमारे देश के निकट भविष्य में इन उलझनों से उबर पाना मुश्किल लग रहा है।लोकतन्त्र में अगर जनता के अधिकारो की अनसुनी हो तो समझना मुश्किल नहीं की लोकतन्त्र कितना स्वस्थ है।कई स्पष्ट कारण नजर आते है लोकतंत्र के मरणासन्न होने के-
समस्या की गंभीरता को समझने में नाकाम सरकार
बीते कुछ समय मे सरकार समस्याओं की गंभीरता को समझने मे नाकाम रही और पिछले कुछ समय में इस वजह से अपनी किरकिरी करा चुकी हमारी सरकार सुधरने का नाम नहीं ले रही।सबसे विडम्बना वाली बात यह की अगर समस्या से जो कोई अवगत कराये उसे सरकार अपना दुश्मन मन बैठती है।घोटालो पर अंकुश लगाने मे विफल सरकार ने अब और भी घोटाले किये।हल में आए सीएजी की रिपोर्ट मे नए घोटालो मे कोयला आवंटन मे बंदर बाँट, विमानन मंत्रालय मे हुआ महाघपला, ऊर्जा क्षेत्र मे घोटाला के सामने आने से जनता में भारी अविश्वास फैल चुका है।कुछ गंभीर समस्यायों में असम दंगा और उसके बाद अफवाहों का फैलना, देश मे  बिजली का एकसाथ ठप्प पड़ना, असम दंगो के बाद देश के दूसरे क्षेत्रों मे दंगे जैसे हालात का बनना सबकुछ सरकार की असंवेदनसीलता को दर्शाता है।महंगाई को कम करने मे नाकाम सरकार देश की अर्थव्यवस्था को कमजोर करने वाली सरकार और घोटाले पर घोटाले करने वाली सरकार से अब यह उम्मीद करें की सबकुछ ठीक हो जाये जरा मुश्किल है।उम्मीद है जल्द समझ में आ जाये की जनता के द्वारा चुने हुये सरकार मे जनता के प्रति संवेदनायें कितनी जरूरी है।
गैरजिम्मेदार विपक्ष
जहां समस्याए इतनी विकट है की लोकतन्त्र और आज़ादी का गला घूंटता नजर आ रहा वही हमारे देश का विपक्ष सरकार की असफलताओं को जनता के बीच उठाने मे नाकाम रहा है।किसी भी देश के संतुलित विकाश के लिए एक सशक्त विपक्ष का होना आवश्यक होता है और दुखद पहलू यह है की हमारे देश के प्रमुख विपक्षी पार्टी ने सत्ता पाने की चाहत मे अंदरूनी कलह से उलझ कर देश का अहित ही किया है।अगर विपक्ष ताकत से अपनी बात जनता तक पहुंचा पाती तो अन्ना और रामदेव जैसे गैर राजनीतिक लोगो को आंदोलन के राह पर चलने की जरूरत न आन परती।अब जरूरत है आंतरिक कलहों को भूल विपक्ष को देश के साकारात्मक विकाश पर ध्यान देने की और सत्ता पक्ष पर दवाब दल कर जनता के मुद्दे को ज़ोर शोर से उठाने की।
समाज का गिरता नैतिक स्तर
ये मान कर चले की हमारे समाज के नशों में भ्रष्टाचार समा चुका है और हमारे अंदर ईमानदारी का आभाव है।रोज रोज हो रहे आपराधिक घटनाओं से लगता है की हमे एक बहुत बड़े सुधार की आवश्यकता है क्योकि अराजकता सबके मानसिक पटल पर जा बैठा है।आज जरूरत है छोटे स्तर से लेकर बड़े स्तर तक के हर तरह के अराजकता को खतम करने की और देश के हर नागरिक को विकाशोन्मुखी होने की। मतदान के अधिकार का जाम कर प्रयोग किया जाना चाहिए और चुनावी प्रक्रिया के माध्यम से ईमानदार लोगो को अपना जनप्रतिनिधि बनाने की। 
                                       लोकतन्त्र हमारे लिये वरदान है जिसे हमारे पूर्वजो ने बड़ी जद्दोजहद के बाद हासिल किया है तो इसे बेकार न जाने देना चाहिए और देश को एकजुट हो कर कम करना होगा।राजनीतिक पार्टियो को एक साकरत्मक भूमिका में आना होगा और लोकतन्त्र की मर्यादा को ध्यान मर्यादा को ध्यान मे रखते हुये भ्रष्टाचार जैसी बुराइयों से देश को मुक्त कराना होगा।प्रकृतिक संसाधनो की लूट और जनता के बीच बढ़ रही अमीरी-गरीबी की लंबी खाई कही हमें बहा ना ले जाए।क्यो ना हम छोटे छोटे मुद्दो को तुरत संग्यान में ले।क्यो हम प्रतीक्षा करते है की कोई बड़ा जनान्दोलन हो और सरकार जागे।सरकार को अलग राज्यो के मांग वाले सभी  मुद्दो पर बहुत ही गहनता से निर्णय लेना चाहिए।आज परिस्थिति यह है की अगर बड़ा हिंसक आंदोलन ना हो तबतक सुनवाई नहीं होती।लोकतन्त्र को पूरी तरह मरने के पहले ही इसे बचाने की कोई ना कोई पहल होनी आवश्यक है।

अनशन के क्षेत्र में बढ़ते रोजगार के अवसर


आपको याद होगा गांधी जी ने अहिंसात्मक आंदोलन किया था देश को अंग्रेज़ो से आज़ाद कराने के लिये।पर आज के जमाने मे आंदोलन अनसनात्मत होता जा रहा है।पूरे देश में अनशन चल रहे है।अनशन की महिमा महान है और देश मे अनशन के क्षेत्र मे काफी संभावनाये भी है।हो भी क्यो ना।अब कोई ख्याति चाहता है तो कोई पैसा।और अबतक तो हमारे देश मे मशहूर होने के लिये मुंबई जा कर बॉलीवुड के स्टुडियो के चक्कर लगाने परते थे और पैसे के लिये या तो सरकारी नौकरी जिसमे ऊपरी कमाई हो या अगर ऊपर वाले के करम से कुछ पैसे है आपके पास चुनाव मे खर्च करने के लिये तो नेता बनना पैसे कमाने का आसान जरिया था।

अब आपके सामने एक ऐसे क्षेत्र को सामने लाया जा रहा है जो आपकी उपरोक्त सारी जरूरतों को पूरा करेगा।अब तक आप समझ गये होंगे की हम अनशन के क्षेत्र के नवीन संभावनाओं की बात कर रहे है।जी हा अनशन ही वह क्षेत्र है जहा पैसा,नाम सबकुछ मिलता है।अगर कोई ये कहे की अनशन करें तो कमजोरी आती है तो बता दूँ की अनशन करना बिलकुल ही आसान है और इतनी मजबूती आती है इस अनशन से की सरकार तक हिल जाये और अनशन लंबा खींच जाये तो शायद इंद्र का सिंघासन भी डोल जाये।नये अनशनकारियों के लिये ज्यादा समस्या नहीं होने वाली क्योकि अबतक कुछ वरिष्ठ अनशनकारी बाज़ार में अपना लोहा मनवा चुके है और उनका मार्गदर्शन भी उन्हे मिलेगा।अनशन के क्षेत्र में लोग सफल हो रहे है और इसकी बानगी देखने को मिलती है हाल मे हुये कुछ अनसनों में मसलन अन्ना और रामदेव का अनशन ही ले ले।अगर आप इस क्षेत्र मे नये है तो कुछ बातों का ध्यान रखना जरूरी हो जाता है क्योकि आपको अनशन की कला के साथ वेश बदलने और भागने में भी निपुण होना पड़ेगा।जाहिरहै सफलता के लिये कोई भी शॉर्टकट थोरा रिस्की तो होता ही है।बस समझ लीजिये इस क्षेत्र मे भी कुछ आसान सी मुश्किलें पेश आती है।और हा एक जरूरी बात यह की जब कभी अनशन आपके ऊपर हावी हो या भारी परे तो इसे आंदोलन के मकरजाल में फसाने की कला भी आपको आनी चाहिये। और जैसा की आप जानते है आजकल जेल में भी काफी सुविधाये मौजूद है तो जेल भरो आंदोलन भी एक अच्छा विकल्प हो सकता है।कुछ वरिष्ठ अनशनकारीयों को राजनीतिक पार्टी बनाने की घोसना करते हुये भी देखा गया है।चुंकी आप इस क्षेत्र मे नये है इसलिए उस तरह के कठिन बयानबाजी से बचे क्योकि राजनीतिक पार्टी वाले स्टंट पर अभी शोध चल रहा है।एक जरूरी बात यह की बीच बीच मे वर्तमान सरकार से इस्तीफा जरूर मांग लिया करें क्योकि अनशन के सफल होने के लिये सरकार का सिंघासन हिलते रहना चाहिये।कुछ बाते जैसे चुनाव मे सत्तासीन पार्टी के खिलाफ दुष्प्रचार की धमकी वगेरह वगेरह पर विशेष ज़ोर ध्यान दें।

अब आपके मन में सवाल उठ रहा होगा की फाइदा क्या इस क्षेत्र मे आकर।अजी फाइदा ही फाइदा है।आपको जो नाम चाहिये वह आपको केवल अनशन ही दिला सकता है।पैसे की तो फिकर आप करिए ही मत क्योकि लोग आपके अकाउंट को दान दक्षिणा से भर देंगे।फिर हवाई जहाज से उरते रहिये गाउँ गाउँ।सतर्कता ये बरते की आप दान दक्षिणा अपने खाते मे न लेकर किसी ट्रस्ट या एनजीओ के खाते मे ले।जाहिरहै आपको एक एनजीओ भी बनाना पड़ेगा।आगे की राह आसान है।बस कुछ चुनिन्दा जगहो पर कुछ मुद्दो के लिस्ट के साथ अनशन कीजिये और लोगो को जुटाने की परवाह बिलकुल नहीं करनी।आजकल लोग काफी सस्ते मिलते है बस एक बस का इंतजाम और साधारण सा खाने पीने की व्यवस्था।ध्यान रहे उन लोगो को देशभक्ति का अफीम जरूर खिला दे और अनशन के कुछ दिन पहले फेसबूक जैसे वैबसाइट पर इस अफीम को ज़ोर शोर से बांटने का काम करे।साथ ही कोई मिस्सड कॉल मारने जैसी सुविधा भी करें।जिस से आपको कॉन्फ़िडेंस मिलेगा।

उपरोक्त बातों पर ध्यान से चलें तो आप भी एकदिन वरिष्ठ अनशनकारियों की जमात मे शामिल हो जाएंगे और देश के कुछ बेरोजगारो का भला कर सकेंगे।


Monday 13 August, 2012

योग गुरु रामदेव शून्य से शिखर तक

हरियाणा के छोटे से गाँउ का बालक रामकृष्ण यादव, आज योग गुरु स्वामी रामदेव के नाम से जाना जाने लगा है।योग और आयुर्वेद के क्षेत्र मे स्वामी रामदेव को विश्व भर मे ख्याति तथा सम्मान प्राप्त है।चूंकि बाबा रामदेव बचपन से ही सुभाषचंद्र बोस और रामप्रसाद बिस्मिल सरीखे देशभक्त और क्रांतिकारी विचारों वाले भारत के अमर शहीदों की वीर गाथा से प्रभावित रहे हैं इसलिये यह क्रांतिकारी चरित्र उन्हे देश सेवा के लिये प्रेरित करता रहा है।योग और आयुर्वेद के क्षेत्र मे उनकी ख्याति किसी से छुपी नहीं है।देशभक्ति की भावना ने बाबा को देश के समस्यायों के निवारण हेतु जनता की आवाज बनने का साहस दिया।बाबा रामदेव के आंदोलन को बहुआयामी माना जा सकता है।बहुआयामी से मेरा तात्पर्य है की बाबा ने अपने आंदोलन को किसी एक मुद्दे तक सीमित न रखते हुये अपने आंदोलन मे बहुत सारे मुद्दो को समेटा है।स्वामी रामदेव ने अपने मुहिम को 'भारत स्वाभिमान आंदोलन' का नाम दिया तथा इसकी शुरुआत देश भर मे यात्रा कर लोगो को जागृत करने से हुई।बाद में राष्ट्रमंडल खेलो से जुड़े महाघोटाले पर बाबा ने 2लाख लोगो के साथ दिल्ली मे संसद थाने मे FIR दर्ज कराई।

           उद्देश्य

आंदोलन की पृष्ठभूमि जानने के बाद इसके उद्देश्य को जानना जरूरी हो जाता है।बाबा रामदेव के अनुसार उनका आंदोलन देश को बहुराष्ट्रीये कंपनियो के चंगुल से निकाल कर देश के घरेलू उद्योग धंधे को शशक्त कर सक्षम बनाना है।वह देशवाशियों से स्वदेशी उत्पादो को खरीदने की अपील करते है।बाबा का उद्देश्य भारत के अर्थव्यवस्था को स्वदेशी और मजबूत आदर देना है।बाबा रामदेव भारत के बाहर जमा देश के कलेधन को भी भारत मे लाना चाहते है और इसलिए वे आंदोलन के माध्यम से सरकार पर दबाव बनाना चाह रहे हैं।
                                बाबा रामदेव कभी कभी अतिमहत्वाकांछी भी होते दिखते है और उन्होने अपने आंदोलन को बहुआयामी बनाने के साथ दिग्भ्रमित भी बना लिया।अब उनके पास अनेकों मुद्दे है और हल मे उन्होने अन्ना टीम के टूटने के बाद दिल्ली आंदोलन मे लोकपाल के लड़ाई को आगे बढ़ाने की बात की है।बाबा देश के शिक्षण पद्धति मे हिन्दी,संस्कृत और अन्य क्षेत्रीय भाषा के वर्चस्व को कायम करना चाहते है।

आन्दोलन की सफलता

अब तक बाबा का आंदोलन सरकार को झुका नहीं पाई और काला धन,विदेशी कंपनियो के मामले मे सरकार के कान मे जूं तक नहीं रेंगी।दिल्ली मे चल रहा तत्कालीन आंदोलन को बाबा के आंदोलन का दूसरा चरण मान सकते है।पिछली बार रामलीला मैदान में अनसन के दौरान सरकार की क्रूरता पूर्ण कार्यवाही ने बाबा को अनसल अस्थली छोर कर भागने पर मजबूर कर दिया।पर इस क्रांतिकारी बाबा के लिये सरकार के अत्याचारों से लड़ना मानो बच्चों का खेल हो।बाबा ने एकबार फिर आंदोलन का बिगुल फूंका है और अब देखना है इसबार बाबा सरकार को कितना विवश कर पाते है।

बाबा के राजनीतिक विचार

अपने यात्रा और आंदोलन के दौरान बाबा मीडिया मे अपने राजनीतिक विचार के बारे में बताते रहते है।उन्होने खुद के चुनाव लड़ने वाली बात से हमेशा इंकार किया है पर देश की राजनीति मे एक मार्गदर्शक के रूप मे सक्रिय होने में उन्हे कोई आपत्ति नहीं है।सन्यासी को उन्होने राजा का मार्गदर्शक बताते हुये उन्होने खुद को देश के उत्थान के लिये समर्पित माना है।कभी-कभी बाबा के मुंह से भारतीय जनता पार्टी को चुनाव में  समर्थन देने की बातें भी सुनी गई है।
                    टीम अन्ना के भंग होने तथा उनके राजनीतिक पार्टी बनाये जाने की घोषणा के बाद जनता बाबा के साथ कितना चल पाती है यह तो भविष्य की बातें है पर अब तक के चले आंदोलन और अनसन मे बाबा को जनता का सहयोग मिला है।

चुनौतियाँ

बाबा का सामने अभी काफी चुनौतियाँ है और निकट भविष्य मे आंदोलन के सफल होने की संभावना कम दिखती है।चुनाव के समय विपक्ष की तरह सरकार का विरोध करने वाले बाबा को सरकारी दमन का सामना करना पर सकता है।और बाबा की माने तो उनको सरकार के द्वारा अनेकों षड्यंत्रो के माध्यम से फंसाया जा रहा है।बाबा के सहयोगी बलकृष्ण के फर्जी दस्तावेजों के मुकदमे को भी बाबा उनके खिलाफ सजिस का हिस्सा मानते है।
                       अगर योगगुरु स्वामी रामदेव आने वालों चुनौतियों को स्वीकार कर लड़ सके और जनता का साथ उन्हे मिलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब बाबा का नाम देश के महापुरुषों के साथ लिया जाने लगेगा।पर उसके लिये जरूरत है एक ईमानदार पहल की क्योंकि देश के लोगो को अधिक समय तक कोई निजी स्वार्थवस बांधे नहीं रह सकता।अब तक के सफर को देखते हुये फिलहाल हम इतना जरूर कहेंगे की ये सफर "शून्य से शिखर तक" का था।बाबा जनता के उम्मीदों के शिखर पर है और एक गैर राजनीतिक छवि के साथ उन्होने बहुत सारा काम देश की जनताओं के लिये किया है।संभावनाओं के संसार में शायद बाबा अब एक बदलाव की संभावना के रूप मे सामने आये है।

Wednesday 8 August, 2012

असम दंगा (एक अंतहीन सी समस्या)

हाल मे असम का नाम आया मीडिया मे।कुछ खास उपलब्धि के लिये नहीं,बल्कि एक अनहोनी और मानवता पर कलंक के समान हृदय विदारक दंगो के वजह से।हृदय विदारक इसलिए क्योकि वहा की स्थिति भयावह बन चुकी है।उस क्षेत्र की सच्ची तस्वीर मीडिया ने नहीं दिखाया या हमारी मीडिया चुप ही रहना पसंद करती है ऐसे मामलो में।मै असम मेँ रह चूका हू।और अपनी नज़र मे उस दंगे की सच्ची तस्वीर दिखाने की चेष्टा करूंगा।
वैसे तो असम की प्रकृतिक संसाधनो,कुदरत के मनोरम दृश्यो,समृद्ध संस्कृति का धनी है परन्तु आजकल दंगो की वजह से चर्चा मे है।
दंगो की पृस्ठ भूमि
दंगे के कारणो को समझने के लिये इनके पृषभूमि को समझना होगा जो 90 के दशक से बननी शुरू हो चुकी थी।
बोड़ो समुदाय अपने क्षेत्र पर अपना एकाधिकार मानते है।और वह 90 के दशक मे संथाल वर्ग की जनसंख्या काफी कम थी और इनका बोड़ो समुदाय के साथ टकराव होता ही रहता था।1992 के दंगो मे बस दो समुदाय के बीच जातिये हिंसा हुई थी।और इन्ही कारणों से वहाँ उस क्षेत्र को कुछ विशेष स्वायतता दिया गया था ताकि वहा के कानून व्यवस्था को दुरुस्त किया जा सके।10फरबरी 2003 को "बोड़ो लिब्रेसन टटाइगर फोर्स" के आत्मसमर्पण के बाद बोड़ो टेरीटोरियल काउंसिल की स्थापना की गई।इनमे असम के कुछ जिले जैसे कोकराझार,बस्का,उदलगुरी,चिरांग को शामिल किया गया।भारत के संविधान के अनुछेद 6 के तहत यह स्वायतता दी गई।इसका कोई ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ा और वहा के बोड़ो एक अलग राज्य "बोडोलेंड" की मांग पर अडिग रहे और वहा अनेक संगठिक सशस्त्र ग्रुप ने जन्म लिया और समय समय पर उत्पात मचाते रहे।
दंगो की वजह
दंगो मे शामिल दो गुट मे एक तो बोड़ो समुदाय विशेषकर हिन्दू साथ ही दूसरा गुट बंगलादेशी घुसपैठियों और बोड़ो मुस्लिम का है। दंगो की पृस्ठभूमि समझने के बाद अब बारी है हाल मे हुये दंगो के वजह हो समझने की।दंगो का तत्कालीन वजह जो भी समझा जाए पर इतना निश्चित है की बोड़ो बांग्लादेशियों के बढ़ते घुसपैठ के बीच अपने अलग राज्य की मांगो को कमजोर परता देख रहे है और कुछ क्षेत्रो मे बांग्लादेशियों की तादाद वहाँ के स्थानिये लोगो की तुलना मे अधिक हो चुका है।वहाँ घुसपैठिए अपनी जड़े जमा चुके है तथा अलग राज्य के मांग का समर्थन न कर उसके विरोध में आंदोलन कर वहाँ के एक छात्र संगठन ने दंगे की तत्कालीन वजह बनने का काम किया।बोड़ो और मुस्लिम समुदाय मे अविश्वास फैल चुका था।।ध्यान रहे की ये दोनों गुट तत्कालीन काँग्रेस सरकार का समर्थक है।और सरकार ने उनके अपने मे ही अलग राज्य के मांग के विरोध का शूर उठवा दिया।चूंकि बोड़ो समुदाय अपने आंदोलनो मेँ  हिंसा और हथियार का प्रयोग जम कर करते रहे है इस वजह से अब किसी बड़े हिंसा को होने से कोई रोक नहीं सकता था।सरकार बोडोलेंड राज्य की मांग को स्वीकार नहीं रही थी तथा वहाँ बांग्लादेशियों की तादाद दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी।इन सब वजहों से बोड़ो के कुछ सशस्त्र गुट ने हिंसा की शुरुआत कर दी।अब भला वह के घुसपैठिए वर्ग क्यो चुप बैठने लगे।तात्कालीन सरकार भी तो उनके साथ है और  अपने वोट बैंक को सुरक्षित करने हेतु उसने उन सबको भारत का पासपोर्ट,राशन कार्ड,मतदाता सूची मे नाम आदी सुविधाए घुसपैठियों को आसानी से उपलब्ध कराई हुई है।तो दोनों समूह के अत्यधिक शक्तिशाली होने के कारण इतना अधिक विध्वंशकारी दंगा मूर्त रूप ले चुका है।दंगे ही प्रबल संभावना को देखते हुये भी सरकार ने भोली भली जनता के सुरक्षा का कोई उपाय नहीं किया।और अब तक 4लाख से ज्यादा लोग बेघर हो चुके है।और लोगो के मरने का क्रम जारी है।
समाधान
इस दंगे का कोई भी समाधान वर्तमान मे नज़र नहीं आता।अब सवाल यह है की क्या बंगलादेशी सिर्फ बोडोलेंड वाले क्षेत्र मे है?जी नहीं वह तो पूरे असम के साथ बिहार और पूरे देश मे फैल रहे है।तो अगर आगे आने वाले दंगो से देश को बचाना है तो घुसपैठ रोकना होगा।उस वोट का क्या करेंगे जब देश ही नहीं रहेगा।
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Friday 6 July, 2012

भारतीय मीडिया की कूपमंडूकता

भारत मे मीडिया का स्थान लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप मे दिया गया है।यहा चौथे का मतलब ये बिलकुल नहीं है की मीडिया का नंबर चौथा आता है लोकतन्त्र को मजबूत करने में।लोकतन्त्र के चारो खंभो मे अगर एक भी खंभा कमजोर निकला तो हमारा ये नया नवेला लोकतन्त्र औंधे मुंह गिर जाएगा।हमारे संविधान मे कुछ ऐसी धाराएँ है जिनमे मीडिया के कर्तव्यो के बारे में बताया गया है।लेकिन हमारे देश की मीडिया को सिर्फ अपने अधिकारों के बारे मे पता है।पर अपना वो कर्तव्य भूल गए।हमें पता है की हमारे देश भारत मे आस्था और अंधविश्वास के बीच की पतली लकीर है।और मीडिया की जिम्मेवारी बनती है की देश के लोगो के बीच वैज्ञानिक सोच पैदा की जाए।क्योकि आस्था के नाम पर जो लूट मची है उसको मिटाना मिटाना एक विकषित लोकतन्त्र के लिए अत्यंत आवश्यक काम है।ये ज़िम्मेदारी मिली थी मीडिया को की देश मे वैज्ञानिक सोच विकषित हो पर हमारे देश की मीडिया चाहे वह किसी भी प्रकार की हो एलेक्ट्रोनिक या प्रिंट या वेब सब संविधान के मूल भावना के उलट लोगो मे अवैज्ञानिक सोच पैदा कर रहे है।पिछले कुछ दिनों के घट्नाक्रमों को देखे तो एलेक्ट्रोनिक मीडिया ने इन सब चीजों को बढ़ चढ़ कर दिखाया और प्रचारित किया।हम जानते है की हमारे देश का मीडिया खासकर एलेक्ट्रोनिक मीडिया के पास अधिक अनुभव नहीं है और इसे हम बचकानी हरकत मन सकते है।पर समय के साथ इन हरकतों मे इजाफा ही हुआ है।हमारे देश की बड़ी समस्या यह है की हम भारतीय लोग विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रो के लोग अंधविश्वास वाली बाटो पर जल्दी यकीन कर ल्र्ते है और किसी घटना के वैज्ञानिक पक्ष को अनदेखा कर देते है।इस तरह के समाज मे अगर मीडिया अपनी ज़िम्मेदारी भूल जाए तो चिंता की बात तो है।पहले न्यूज़ चैनलों पर टोटके,टोना,उल जुलूल उपाय वाले विज्ञापनो और अलग अलग तरह के प्रोग्राम दिखा कर लोगो को भ्रमित किया जाता था।कुछ दिन पहले तो निर्मल बाबा के विज्ञापन को न्यूज़ की तरह प्रसारित कर देश के भोली भाली जनता को कुछ न्यूज़ चैनलों ने बाबा के चंगुल मे फँसने को विवश किया।विवश शब्द का प्रयोग मैंने इसलिए किया क्योकि जनता का न्यूज़ चैनलों पे जो भरोसा है उसका नाजायज फाइदा इन्होने उठाया और जनता को गुमराह किया।इन सब घटनाओ से तो इतना साबित हो गया की देश के कुछ मीडिया संस्थानो को अपने मूल उद्देश्यों से ज्यादा अपने जेब की चिंता है।चलिये मन लेते है की उपरोक्त बातें मीडिया की मजबूरी है॰विज्ञापन की मजबूरी ,टीआरपी की मजबूरी।पर यहाँ मै एक घटना का उल्लेख करना चाहूँगा।हमारे देश की मीडिया चाहे वह प्रिंट हो या एलेक्ट्रोनिक सबने ईश्वरीय कणों वाले समाचार को तोड़ मरोड़ पेश किया है वह निश्चय की बेहद शर्मनाक और बचपने वाली बात है।मीडिया को देश के नागरिकों को भौतिक के एक विशाल अनुसंधान को ईश्वर की उत्पति और कण कण मे भगवान वाली बात बता कर भ्रामक स्थिति नहीं पैदा करनी चाहिए थी।कुछ मीडिया को छोरकर सबने अपनी कूपमंडूकता अर्थात कुएं के मेढक वाली छवी बनाई है।और अब मीडिया को अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुये देश से माफी मांग कर एकबार फिर से देश मे वैज्ञानिक सोच पैदा करने कोशिस करनी चाहिये।आज विडम्बना यह है की विज्ञान से पढ़ने वाले विद्यार्थी और शिक्षक तक अवैज्ञानिक सोच रखते है।अगर हम अपने देश से अंधविश्वास को खतम कर पाये तो यह हमारे देश के विकाश की गति मे सहायक होगा।और देश के मीडिया को अपनी ज़िम्मेदारी को समझना होगा।और यह काम सिर्फ एक साधारण पत्रकार से नहीं हो सकता या हम किसी संपादक को इसका जिम्मेदार नहीं बता सकते।इस कम को करने मे मीडिया प्रतिष्ठानो के मालिको को भी आगे आना होगा।और देश मे चल रह अंधविश्वास को पोशित करने वाले हर विज्ञापन और समाचार को अपने से दूर करना होगा।"भारतीय मीडिया की कूप मंडूकता" शीर्षक और इसके प्रेरणा श्रोत आशीष देवराड़ी(https://www.facebook.com/deorari) जी है।आप मुझसे फेसबुक पर भी मिल सकते है।लिंक है https://www.facebook.com/mrmanishchandramishra

Monday 21 May, 2012

राजनीति या फूटबाल का खेल

आज बीते कुछ बर्षों मे राजनीति एक खेल सा बन गया है जहा हम सुनते है की एक नेता ने दूसरे के पाले मे गेंद डाल दी।मतलब एक दूसरे पर तोहमत लगाना, एक दूसरे को फंसाना।और सत्ता पाने की ऐसी लालच की मत पूछिये।पक्ष हो या विपक्ष बस एक दूसरे की कामिया गिनने मे लगे है और यहा तक की इन्होने मान लिया है की दूसरे अगर गलत है तो इन्हे भी गलती करने की आज़ादी या खुली छूट मिल जाती है।अगर कोई माननिए घोटाले मे धरे जाते है तो उनका टका सा जवाब होता है की विपक्ष अपनी गिरेबान मे झाँके।उनके राज मे भी तो ऐसा होता था।पर साहब आपको जिस जनता ने वोट दिया उसे भूल गए।फूटबाल के खेल मे भी कुछ ऐसा ही होता नजर आता है।क्षण मे बॉल इस खिलाड़ी से उस खिलाड़ी के पास।खिलाड़ी तो ये भी है राजनीति के धुरंधर।और खेल मे हारती है सिर्फ जनता।मूक दर्शक बन कर।हो हल्ला तो होता है पर यहा दर्शक के बजाए खिलाड़ी हल्ला करते है।क्या यह समस्या अंतहीन है?
मिलते है अगले पोस्ट में।मुझसे facebook पर मिले https://www.facebook.com/mrmanishchandramishra
मेरा दूसरा ब्लॉग है www.hellomishra.jagranjunction.com

www.hellomishra.jagranjunction.com

क्या हम आज़ाद हैं?

ये तो बचपन से पता है हम आज़ाद है।हम आज़ाद हो या न हो हमारा देश आज़ाद है।हमारा देश भारत,इंडिया,आर्यावत,हिंदुस्तान हे ईश्वर कोई एक नाम क्यो नहीं है हमारे देश का।चलिये मान ले की हमारे देश का नाम भारत है।नहीं भारत नहीं इंडिया मान लेते है।जब देश का नाम निश्चित करने मे इतना गोलमाल लगा तो समझ सकते है की मेरी मानसिकता भी गुलामो की है।जी हाँ मै भी गुलाम हू हर उस भारतीय की तरह,जिनको अपने देश का एक नाम पता नहीं,एक आधिकारिक नाम।
चलिये इस बात को जाने दीजिये क्योकि हमारे गृह मंत्रालय के पास भी इसकी जानकारी नहीं की हमारे देश का क्या नाम है।(हाल मे ही RTI के जवाब मे बताया गया था)।हमारे देश की एक राष्ट्रभाषा है।बहुतायत लोग आज भी उसके बल पर एक दूसरे से संवाद स्थापित करते है।अजी मे हिन्दी की बात कर रहा हूँ।हिन्दी को आज़ादी के बाद मातृभाषा का दर्जा मिला।आज़ाद देश की अपनी आज़ाद भाषा।यू तो भारत मे बहुत सारी भाषा है जिनका प्रयोग होता है और ये सारी भाषाएँ देशी है।ये अँग्रेजी तो विदेशी भाषा है।जब हम गुलाम थे तब अँग्रेजी हमारे आका की भाषा थी।पर क्या आज आज़ाद भारत मे हमारी मानसिकता आज़ाद हुई है।क्या हमारी भारतीय भाषाओ पर अंग्रेज़ियत हावी नहीं है।क्या हमे अपने देश मे अँग्रेजी की वैशाखी पर चलने को मजबूर नहीं किया जाता।किसी के प्रतिभा का आंकलन उसके अँग्रेजी जानने या न जानने पर हम कब तक करते रहेंगे।
पता नहीं कब तक करेंगे।शायद ये अंतहीन प्रतीक्षा हो।
हमारा देश जो की एक पराधीन मानसिकता का आज़ाद देश है।यहा पर कोर्ट मे हिन्दी मे बहस करने की मांग पर जुर्माना लगा दिया जाता है,हिन्दी के विद्वानो को नौकरी नहीं मिलती।
चलिये मै भी अँग्रेजी जनता हू और अपने इस पराधीन मस्तिष्क को ये कह कर समझा लेता हूँ की अँग्रेजी जानना प्रगति की निशानी है।पर जानना और उस भाषा की पराधीनता स्वीकार करने मै जमीन आसमान का फर्क है।
सच तो यह है की हम पराधीन है अंग्रेज़ियत के और अपने मूढ़ मस्तिष्क को स्वाधीन होने का एहसास करा रहे है।
अब सिर्फ अँग्रेजी पे पूरा दोष डाल दूंगा क्या।नहीं कुछ और भी है जिसके बिना हम नहीं चल सकते।
नेता नेतागिरी लोकतन्त्र भ्रष्टाचार।यकीन मानिए अगर आप पहले के 3 शब्द नेता नेतागिरी लोकतन्त्र लिखेंगे तो कीबोर्ड भ्रष्टाचार खुद ब खुद टाइप कर देगा।
ये भ्रष्टाचार बरा कारामाती शब्द है जनाब।इसकी महिमा अपरमपार है।इसे भारतीय लोकतन्त्र नौकरशाही को चलाने की मूल शक्ति के रूप मे जाना जाता है।हम इसके बिना एक कदम नहीं चल।जनम से लेकर उसके अंतिम संस्कार के बीच जिंदगी की हर जद्दोजहद मे एक भी काम इस अलौकिक शक्ति के बिना नामुमकिन है।
अब मे गर्व से कह सकता हूँ की मै आज़ाद देश का गुलाम नागरिक हू।
अगले पोस्ट मे मिलते है किसी अंत हीन समस्या को लेकर।