- मनीष चन्द्र मिश्र
हिन्दी दिवस पर टोटकों का सिलसिला फिर जारी हो गया है. जगह-जगह हिन्दी
की चिंता में संगोष्ठियों का आयोजन किया जा रहा है. हिन्दी के ठेकेदार और महंथ
अपना-अपना रोना रो रहे हैं. कहां कोई हिन्दी के कम हो रहे पाठकों पर चिंता जता रहा
तो कही किसी को इसमें साजिश की बू आ रही. हिन्दी की चिंता में जीने और मरने वाले लोगों
ने अंग्रेजी और कुछ अन्य भाषाओं को गरियाने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा दी. हिन्दी
भक्तों के विलाप को देखते हुए सोचना स्वभाविक है कि क्या हिन्दी की स्थिति सच में
इतनी बुरी है जितना देखा और समझा जा रहा है ? कई मामलों में
हिन्दी दिनों-दिन समृद्ध हुई है. एक युवा जो हिन्दी को जानता है साथ ही दूसरे
भाषाओं की समझ भी रखना चाहता है उसके नजर में हिन्दी की स्थिति को समझते हैं.
हिन्दी भाषा उन चंद भाषाओं में से है जो दूसरी भाषा के शब्दों को अपना
लेती है. भारतीय भाषा होने के साथ इसमें भारतीयता के गुण भी हैं. अतिथिदेवों भव के
सिद्धांत पर हिन्दी ने अंग्रेजी और फारसी जैसे भाषाओं के शब्दों को अपने अंदर इस
तरह समेटा कि वह शब्द हिन्दी की होकर रह गई. हिन्दी की समृद्धि को इसके क्षय के
रूप में देखकर हम इसके मूल सिद्धांतों के
साथ अन्याय करते हैं. हिन्दी कोई बहुत पुरातन भाषा तो है नहीं. इसके कई और स्वरूप
आप ही आएंगे और अभी इसमें कई बदलाव आएंगे. आज के साहित्यकार जिस भाषा को लिखकर उसे
एकदम शुद्ध होने का दम भरते हैं दरअसल वह पहले वैसी नहीं थी. समय के साथ बदलते
बदलते संस्कृत और अन्य देशज शब्दों को ग्रहण कर हिन्दी समृद्ध होती गई. और इस भाषा
में अब कई बदलाव आते रहेंगे. जिसका हमें स्वागत करना चाहिए.
हिन्दी या कोई भी भाषा का मूल उद्देश्य एक दूसरे के बीच संपर्क
स्थापित करना होता है. भाषा के माध्यम से
संपर्क जितनी सहजता से स्थापित हो वह उतना ही प्रचलित होता है. हम हिन्दी के
संरक्षण के नाम पर अगर इस भाषा को सरल नहीं बनने देंगे तो हिन्दी पाटकों और आम जनों
से दूर होती तली जाएगी. हिन्दी के बारे में कुछ लोगों को बड़ी साजिश भी नजर आती
है. इन साजिशों में भाषा पर विदेशी आक्रमण जैसी बात भी कही जाती है. लेकिन दरअसल
लोगों को हिन्दी से दूर करने में उन साहित्यकारों का भी बड़ा हाथ है जिन्होंने
भाषा की शुद्धता के नाम पर इस भाषा को कठिन बनाए रखा.
पिछले एक दशक में हिन्दी ने हर क्षेत्र में अपने सरल सहज स्वभाव से
डंका बजाया हैं. देश में लाखों-करोड़ो का विज्ञापन का कारोबार हिन्दी में ही चलता
है. घर में टेलीविजन में रोज दिखने वाला विज्ञापन, फिल्म और गानों ने हिन्दी को
जन-जन तक पहुंचाया. बंगाल असम और दक्षिण भारत में हिन्दी फिल्मों ने इस भाषा को
पहुंचाने का बड़ा काम किया है. इंटरनेट पर युनीकोड के रूप में हिन्दी लिखना इस
भाषा की सबसे बड़ी क्रांति के रूप में देखी जाती है. आज हिन्दी भाषी लोगों की
संख्या बढ़ती जा रही है. लोग अन्य भाषाओं के साथ हिन्दी भी जानते हैं. जब हिन्दी
के कायाकल्प का समय है तब हिन्दी के लिए रो रोकर चिंता प्रकट करना कुछ समझ नहीं
आता. इससे पहले इतिहास में शायद ही कोई समयकाल रहा होगा जब इस भाषा का इतना प्रभाव
रहा होगा. तो इस स्वर्णिम समय में हिन्दी के विकास में रोड़ा न बनकर इसे उन्मुक्त
रूप में अपना विकास करे दें तो बेहतर होगा. हिन्दी बचाने के नाम पर आपके टोटके
शायद ही इसे बचा रही हो. और इसके साथ दूसरी भाषाओं के प्रति दुराग्रह भी ठीक नहीं.
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