Monday 15 June, 2015

फुर्सत के पल, हादसे का दर्द और ज़िद ने मुझे भोपाली बना दिया

वरिष्ठ रंगकर्मी बंसी कौल ने दैनिक भास्कर से खास बातचीत में भोपाल से जुड़ी यादों को शेयर किया। वह 1970 में कश्मीर से मध्यप्रदेश आए थे। कुछ दिनों बाद उन्हें भोपाल रास आ गया और यहीं रहने लगे।

बंसी कौल को थिएटर ऑफ लाफ को स्थापित करने के लिए जाना जाता है।
मनीष चंद्र मिश्र।  
'पहली बार 1970 में सागर यूनिवर्सिटी की एक वर्कशॉप में मेरा कश्मीर से मध्यप्रदेश आना हुआ। भोपाल की खूबसूरती मुझे हमेशा से अट्रैक्ट करती रही है। शुरुआत में आना-जाना लगा रहा, फिर शहर के लोगों से दोस्ती होने लगी। भोपाल के मिजाज में फुर्सतपन है। यह फुर्सत कोई सुस्ती नहीं, बल्कि यह क्रिएटिव काम के लिए जरूरी भी है। मैं भी कुछ इसी तरह की सोच का इंसान हूं। काम की भागदौड़ के बीच घर में आराम के साथ रहने की बात ही अलग है। यहां की जुबान में गजब का ह्यूमर है। इसमें मजाक और कटाक्ष के बीच मानवीयता भी है। इस जुबान को गुलाबी उर्दू कहेंगे। इसमें मालवी, बुंदेलखंडी, उर्दू जैसी भाषाओं के मेल से खास तरह का लहजा बनता है। मेरी कश्मीरी जुबान भी इसमें समा गई और किसी ने भाषा के लिए कभी नहीं टोका। इन सभी वजहों से भोपाल मुझे जम गया और मैं यहीं का हो गया।'

उस रात ट्रेन जल्दी आ गई...

'गैस त्रासदी की रात दिल्ली के लिए निकलना था। एक दोस्त अलखनंदन ने स्टेशन तक छोड़ दिया। आमतौर पर देर से आने वाली ट्रेन, उस रात जल्दी आ गई। इसके बाद जो ट्रेनें आईं, उसके यात्री गैस हादसे का शिकार हो गए। सुबह दिल्ली पहुंचकर पता चला कि भोपाल में बड़ा हादसा हो गया है। मैं तुरंत भोपाल लौट आया। उस वक्त यहां का माहौल भयानक था। शहर के दर्द को देखकर मैं इसके और करीब होता गया। पीड़ितों की जो मदद बन सकी, करता गया। इस दौरान सभी कलाकार भी एक साथ हो गए थे। भारत भवन की रैपेट्री की वजह से शहर के कई थिएटर ग्रुप्स खत्म होने लगे थे। उस वक्त रैपेट्री के बाहर के थिएटर को बचाने और उन्हें सफल बनाने की जिद ठान ली थी। "रंग विदूषक' के जरिए इसे बचाने की कोशिश के चलते भोपाल में रहने लगा।'

चाय पीते-पीते बन गया 

"रंग विदूषक'मैं प्रोफेसर कॉलोनी में रहता था, जो पुराने और नए भोपाल के बीच में है। जब नया भोपाल सो जाता है तो पुराने भोपाल में रौनक शुरू होती है। हम देर रात तक पटियों पर बैठते थे। हमीदिया कॉलेज (अब एमएलबी) के सामने चाय पीते-पीते हमने "रंग विदूषक' बनाने की प्लानिंग की। थिएटर में सभी तरह के लोग काम करते हैं। इसके माध्यम से कई भोपाली दोस्त बने।


Saturday 14 September, 2013

हिन्दी पर रोना कैसा ?

- मनीष चन्द्र मिश्र

हिन्दी दिवस पर टोटकों का सिलसिला फिर जारी हो गया है. जगह-जगह हिन्दी की चिंता में संगोष्ठियों का आयोजन किया जा रहा है. हिन्दी के ठेकेदार और महंथ अपना-अपना रोना रो रहे हैं. कहां कोई हिन्दी के कम हो रहे पाठकों पर चिंता जता रहा तो कही किसी को इसमें साजिश की बू आ रही. हिन्दी की चिंता में जीने और मरने वाले लोगों ने अंग्रेजी और कुछ अन्य भाषाओं को गरियाने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा दी. हिन्दी भक्तों के विलाप को देखते हुए सोचना स्वभाविक है कि क्या हिन्दी की स्थिति सच में इतनी बुरी है जितना देखा और समझा जा रहा है ? कई मामलों में हिन्दी दिनों-दिन समृद्ध हुई है. एक युवा जो हिन्दी को जानता है साथ ही दूसरे भाषाओं की समझ भी रखना चाहता है उसके नजर में हिन्दी की स्थिति को समझते हैं.
हिन्दी भाषा उन चंद भाषाओं में से है जो दूसरी भाषा के शब्दों को अपना लेती है. भारतीय भाषा होने के साथ इसमें भारतीयता के गुण भी हैं. अतिथिदेवों भव के सिद्धांत पर हिन्दी ने अंग्रेजी और फारसी जैसे भाषाओं के शब्दों को अपने अंदर इस तरह समेटा कि वह शब्द हिन्दी की होकर रह गई. हिन्दी की समृद्धि को इसके क्षय के रूप में  देखकर हम इसके मूल सिद्धांतों के साथ अन्याय करते हैं. हिन्दी कोई बहुत पुरातन भाषा तो है नहीं. इसके कई और स्वरूप आप ही आएंगे और अभी इसमें कई बदलाव आएंगे. आज के साहित्यकार जिस भाषा को लिखकर उसे एकदम शुद्ध होने का दम भरते हैं दरअसल वह पहले वैसी नहीं थी. समय के साथ बदलते बदलते संस्कृत और अन्य देशज शब्दों को ग्रहण कर हिन्दी समृद्ध होती गई. और इस भाषा में अब कई बदलाव आते रहेंगे. जिसका हमें स्वागत करना चाहिए.
हिन्दी या कोई भी भाषा का मूल उद्देश्य एक दूसरे के बीच संपर्क स्थापित करना होता है.  भाषा के माध्यम से संपर्क जितनी सहजता से स्थापित हो वह उतना ही प्रचलित होता है. हम हिन्दी के संरक्षण के नाम पर अगर इस भाषा को सरल नहीं बनने देंगे तो हिन्दी पाटकों और आम जनों से दूर होती तली जाएगी. हिन्दी के बारे में कुछ लोगों को बड़ी साजिश भी नजर आती है. इन साजिशों में भाषा पर विदेशी आक्रमण जैसी बात भी कही जाती है. लेकिन दरअसल लोगों को हिन्दी से दूर करने में उन साहित्यकारों का भी बड़ा हाथ है जिन्होंने भाषा की शुद्धता के नाम पर इस भाषा को कठिन बनाए रखा.

पिछले एक दशक में हिन्दी ने हर क्षेत्र में अपने सरल सहज स्वभाव से डंका बजाया हैं. देश में लाखों-करोड़ो का विज्ञापन का कारोबार हिन्दी में ही चलता है. घर में टेलीविजन में रोज दिखने वाला विज्ञापन, फिल्म और गानों ने हिन्दी को जन-जन तक पहुंचाया. बंगाल असम और दक्षिण भारत में हिन्दी फिल्मों ने इस भाषा को पहुंचाने का बड़ा काम किया है. इंटरनेट पर युनीकोड के रूप में हिन्दी लिखना इस भाषा की सबसे बड़ी क्रांति के रूप में देखी जाती है. आज हिन्दी भाषी लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है. लोग अन्य भाषाओं के साथ हिन्दी भी जानते हैं. जब हिन्दी के कायाकल्प का समय है तब हिन्दी के लिए रो रोकर चिंता प्रकट करना कुछ समझ नहीं आता. इससे पहले इतिहास में शायद ही कोई समयकाल रहा होगा जब इस भाषा का इतना प्रभाव रहा होगा. तो इस स्वर्णिम समय में हिन्दी के विकास में रोड़ा न बनकर इसे उन्मुक्त रूप में अपना विकास करे दें तो बेहतर होगा. हिन्दी बचाने के नाम पर आपके टोटके शायद ही इसे बचा रही हो. और इसके साथ दूसरी भाषाओं के प्रति दुराग्रह भी ठीक नहीं.

Friday 13 September, 2013

दिल्ली गैंगरेप के फैसले पर द्वंद

- मनीष चन्द्र मिश्र
दिल्ली का शर्म कही जाने वाली और दामिनी के रूप में देश और इंसानियत की अस्मिता को तार-तार करने वाली वारदात के बाद देश में जो गुस्सा फूटा, आज उसके अंजाम का दिन है. मामले की सुनवाई कर रही फास्ट ट्रैक कोर्ट ने अपना फैसला सुनाते हुए चारों आरोपियों को फांसी की सजा सुना दी. इस सजा ने कई बहस को जन्म दिया है. इंसाफ मिलने से जहां देश के लोग खुश हैं वहीं कुछ लोग ऐसे मामलों पर काफी समय से फांसी की सजा का विरोध करते आएं हैं. चाहे वह अफजल-कसाब जैसे दुर्दांत आतंकी को फांसी देने का मामला हो या दामिनी के गुनहगारों की जान लेने के फैसले का मामला हो. तो अब इन बहसों से यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या फांसी की सजा को बंद कर दिया जाए ? सवाल यह भी कि क्या उम्रकैद की सजा या कुछ इससे भी कड़ी सजा ऐसे अपराधियों को ज्यादा सबक देती है ?

मनुष्य को पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीवों में सबसे समझदार माना जाता है. और यह सिर्फ मान्यता ही नहीं सभी मामलों में मनुष्य अन्य जीवों से आगे है. मनुष्य की सबसे बड़ी उपलब्धि समाजिक जीवन जीने और अपने बनाए कानून का पालन करने और किसी निर्धारित तंत्र द्वारा उसका पालन करवाने की भी है.
मनुष्य के विकास के साथ-साथ कानूनों में भी परिवर्तन हुए. पहले कबीले में लोग अपने कानून पर चलते थे. अब समाजिकता बढ़ी तो कानून में हेरफेर के साथ आज 21वीं सदी का कानून हमारे सामने है. अभी कई जगहों पर कानून काफी सख्त हैं. मसलन अरब देशों में इस्लाम के सुझाए कानून चलते हैं जो कुछ हद तक कबीलों की तरह क्रूर हैं लेकिन भारत में ऐसी स्थिति नहीं है. हमारे देश के कानून व्यवस्था में अपराध को देखते हुए सजा देने का विधान है. अपराध की जघन्यता सजा को तय करने में सहायक होती है. तो ऐसे मैं भारत के कानून में सिर्फ जघन्यतम अपरादों के लिए फांसी की सजा का प्रावधान है.



कुछ लोगों की ये दलील भी जायज है कि जान लेने का हक सिर्फ कुदरत को है. वैश्विक स्तर पर मानवाधिकतारियों ने अपने प्रयासों से एक दवाब भी बनाया है कि इस सजा को खत्म किया जाए. लेकिन उन्हें सोचना होगा कि अपराधियों के लिए मानव अधिकारों की बात कर हम उनके अपराध में बढ़ावा तो नहीं दे रहे. कुदरत के नियम की दलील के आधार पर कुछ मामलों में फांसी रोकी जा सकती है लेकिन इस सजा को साफ बंद कर देने से यकीनन अपराधियों के हौसले बुलंद होंगे. इस मामले में भारत के कानून की सराहना करनी होगी. और इस स्थिति में गैंगरेप के बाद क्रूरतापूर्वक हत्या जैसे जघन्य अपराधों में फांसी की सजा जायज है. ऐसे मामलों के अपराधियों पर दया करना पीड़ित के साथ अन्याय होगा और यह मानव जाति के उस कानून के खिलाफ भी होगा जहां लोगों ने मिलकर खुद को कानून के भीतर रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं.

Tuesday 4 September, 2012

शिक्षक दिवस स्पेशल

पदचिन्हों के पीछे-पीछे,
आजीवन चलता जाऊँगा |
जो राह दिखाई है तुमने ,
मैं औरों को  दिखलाऊंगा ||
सूखी डाली को हरियाली , बेजान को जीवनदान दिया |
काले अंधियारे जीवन को , सौ सूरज से धनवान किया ||
परोपकार, भाईचारा,
मानवता, हमको सिखलाई |
सच्चाई की है दी मिसाल ,
है सहानुभूति क्या दिखलाई ||
कान पकड़ उठक- बैठक , थी छड़ियों की बरसात हुयी |
समझ न पाया उस क्षण मैं, अनुशासन की शुरुआत हुयी ||
मुखमंडल पर अंगार कभी ,
आँखों में निश्छल प्यार कभी|
अंतर में माँ की ममता थी,
सोनार कभी, लोहार कभी ||
जीवन को चलते रहना है , लौ इसकी झिलमिल जलती है |
जीवन के हर चौराहे पर, बस कमी तुम्हारी खलती है ||
जीवन की कठिन-सी राहों पर,
आशीष तुम्हारा चाहूँगा|
जो राह दिखाई है तुमने,
मैं औरों को दिखलाऊंगा ||


Sunday 19 August, 2012

लोकतन्त्र का घूंटता गला

कुछ समय से देश की राजनीति में जो उथल पुथल देखने को मिल रहा है इसे लोकतन्त्र के लिए अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता है।लोकतन्त्र जहां जनता की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों को कुछ अधिकार दिये गए है जिस से की शासन व्यवस्था सुचारु रूप से चले पर सत्ता का ऐसा नशा चढ़ा है सत्ताधिसों पर की वह अपने को स्वयंभू मान जनता को लूट रहे है।घोटालो की संख्या में लगातार वृद्धि और भ्रष्टाचारियों पर लगाम लगाने के बजाए उन्हे पोषित किया जा रहा है।समस्याओं से घिरे हमारे देश के निकट भविष्य में इन उलझनों से उबर पाना मुश्किल लग रहा है।लोकतन्त्र में अगर जनता के अधिकारो की अनसुनी हो तो समझना मुश्किल नहीं की लोकतन्त्र कितना स्वस्थ है।कई स्पष्ट कारण नजर आते है लोकतंत्र के मरणासन्न होने के-
समस्या की गंभीरता को समझने में नाकाम सरकार
बीते कुछ समय मे सरकार समस्याओं की गंभीरता को समझने मे नाकाम रही और पिछले कुछ समय में इस वजह से अपनी किरकिरी करा चुकी हमारी सरकार सुधरने का नाम नहीं ले रही।सबसे विडम्बना वाली बात यह की अगर समस्या से जो कोई अवगत कराये उसे सरकार अपना दुश्मन मन बैठती है।घोटालो पर अंकुश लगाने मे विफल सरकार ने अब और भी घोटाले किये।हल में आए सीएजी की रिपोर्ट मे नए घोटालो मे कोयला आवंटन मे बंदर बाँट, विमानन मंत्रालय मे हुआ महाघपला, ऊर्जा क्षेत्र मे घोटाला के सामने आने से जनता में भारी अविश्वास फैल चुका है।कुछ गंभीर समस्यायों में असम दंगा और उसके बाद अफवाहों का फैलना, देश मे  बिजली का एकसाथ ठप्प पड़ना, असम दंगो के बाद देश के दूसरे क्षेत्रों मे दंगे जैसे हालात का बनना सबकुछ सरकार की असंवेदनसीलता को दर्शाता है।महंगाई को कम करने मे नाकाम सरकार देश की अर्थव्यवस्था को कमजोर करने वाली सरकार और घोटाले पर घोटाले करने वाली सरकार से अब यह उम्मीद करें की सबकुछ ठीक हो जाये जरा मुश्किल है।उम्मीद है जल्द समझ में आ जाये की जनता के द्वारा चुने हुये सरकार मे जनता के प्रति संवेदनायें कितनी जरूरी है।
गैरजिम्मेदार विपक्ष
जहां समस्याए इतनी विकट है की लोकतन्त्र और आज़ादी का गला घूंटता नजर आ रहा वही हमारे देश का विपक्ष सरकार की असफलताओं को जनता के बीच उठाने मे नाकाम रहा है।किसी भी देश के संतुलित विकाश के लिए एक सशक्त विपक्ष का होना आवश्यक होता है और दुखद पहलू यह है की हमारे देश के प्रमुख विपक्षी पार्टी ने सत्ता पाने की चाहत मे अंदरूनी कलह से उलझ कर देश का अहित ही किया है।अगर विपक्ष ताकत से अपनी बात जनता तक पहुंचा पाती तो अन्ना और रामदेव जैसे गैर राजनीतिक लोगो को आंदोलन के राह पर चलने की जरूरत न आन परती।अब जरूरत है आंतरिक कलहों को भूल विपक्ष को देश के साकारात्मक विकाश पर ध्यान देने की और सत्ता पक्ष पर दवाब दल कर जनता के मुद्दे को ज़ोर शोर से उठाने की।
समाज का गिरता नैतिक स्तर
ये मान कर चले की हमारे समाज के नशों में भ्रष्टाचार समा चुका है और हमारे अंदर ईमानदारी का आभाव है।रोज रोज हो रहे आपराधिक घटनाओं से लगता है की हमे एक बहुत बड़े सुधार की आवश्यकता है क्योकि अराजकता सबके मानसिक पटल पर जा बैठा है।आज जरूरत है छोटे स्तर से लेकर बड़े स्तर तक के हर तरह के अराजकता को खतम करने की और देश के हर नागरिक को विकाशोन्मुखी होने की। मतदान के अधिकार का जाम कर प्रयोग किया जाना चाहिए और चुनावी प्रक्रिया के माध्यम से ईमानदार लोगो को अपना जनप्रतिनिधि बनाने की। 
                                       लोकतन्त्र हमारे लिये वरदान है जिसे हमारे पूर्वजो ने बड़ी जद्दोजहद के बाद हासिल किया है तो इसे बेकार न जाने देना चाहिए और देश को एकजुट हो कर कम करना होगा।राजनीतिक पार्टियो को एक साकरत्मक भूमिका में आना होगा और लोकतन्त्र की मर्यादा को ध्यान मर्यादा को ध्यान मे रखते हुये भ्रष्टाचार जैसी बुराइयों से देश को मुक्त कराना होगा।प्रकृतिक संसाधनो की लूट और जनता के बीच बढ़ रही अमीरी-गरीबी की लंबी खाई कही हमें बहा ना ले जाए।क्यो ना हम छोटे छोटे मुद्दो को तुरत संग्यान में ले।क्यो हम प्रतीक्षा करते है की कोई बड़ा जनान्दोलन हो और सरकार जागे।सरकार को अलग राज्यो के मांग वाले सभी  मुद्दो पर बहुत ही गहनता से निर्णय लेना चाहिए।आज परिस्थिति यह है की अगर बड़ा हिंसक आंदोलन ना हो तबतक सुनवाई नहीं होती।लोकतन्त्र को पूरी तरह मरने के पहले ही इसे बचाने की कोई ना कोई पहल होनी आवश्यक है।

अनशन के क्षेत्र में बढ़ते रोजगार के अवसर


आपको याद होगा गांधी जी ने अहिंसात्मक आंदोलन किया था देश को अंग्रेज़ो से आज़ाद कराने के लिये।पर आज के जमाने मे आंदोलन अनसनात्मत होता जा रहा है।पूरे देश में अनशन चल रहे है।अनशन की महिमा महान है और देश मे अनशन के क्षेत्र मे काफी संभावनाये भी है।हो भी क्यो ना।अब कोई ख्याति चाहता है तो कोई पैसा।और अबतक तो हमारे देश मे मशहूर होने के लिये मुंबई जा कर बॉलीवुड के स्टुडियो के चक्कर लगाने परते थे और पैसे के लिये या तो सरकारी नौकरी जिसमे ऊपरी कमाई हो या अगर ऊपर वाले के करम से कुछ पैसे है आपके पास चुनाव मे खर्च करने के लिये तो नेता बनना पैसे कमाने का आसान जरिया था।

अब आपके सामने एक ऐसे क्षेत्र को सामने लाया जा रहा है जो आपकी उपरोक्त सारी जरूरतों को पूरा करेगा।अब तक आप समझ गये होंगे की हम अनशन के क्षेत्र के नवीन संभावनाओं की बात कर रहे है।जी हा अनशन ही वह क्षेत्र है जहा पैसा,नाम सबकुछ मिलता है।अगर कोई ये कहे की अनशन करें तो कमजोरी आती है तो बता दूँ की अनशन करना बिलकुल ही आसान है और इतनी मजबूती आती है इस अनशन से की सरकार तक हिल जाये और अनशन लंबा खींच जाये तो शायद इंद्र का सिंघासन भी डोल जाये।नये अनशनकारियों के लिये ज्यादा समस्या नहीं होने वाली क्योकि अबतक कुछ वरिष्ठ अनशनकारी बाज़ार में अपना लोहा मनवा चुके है और उनका मार्गदर्शन भी उन्हे मिलेगा।अनशन के क्षेत्र में लोग सफल हो रहे है और इसकी बानगी देखने को मिलती है हाल मे हुये कुछ अनसनों में मसलन अन्ना और रामदेव का अनशन ही ले ले।अगर आप इस क्षेत्र मे नये है तो कुछ बातों का ध्यान रखना जरूरी हो जाता है क्योकि आपको अनशन की कला के साथ वेश बदलने और भागने में भी निपुण होना पड़ेगा।जाहिरहै सफलता के लिये कोई भी शॉर्टकट थोरा रिस्की तो होता ही है।बस समझ लीजिये इस क्षेत्र मे भी कुछ आसान सी मुश्किलें पेश आती है।और हा एक जरूरी बात यह की जब कभी अनशन आपके ऊपर हावी हो या भारी परे तो इसे आंदोलन के मकरजाल में फसाने की कला भी आपको आनी चाहिये। और जैसा की आप जानते है आजकल जेल में भी काफी सुविधाये मौजूद है तो जेल भरो आंदोलन भी एक अच्छा विकल्प हो सकता है।कुछ वरिष्ठ अनशनकारीयों को राजनीतिक पार्टी बनाने की घोसना करते हुये भी देखा गया है।चुंकी आप इस क्षेत्र मे नये है इसलिए उस तरह के कठिन बयानबाजी से बचे क्योकि राजनीतिक पार्टी वाले स्टंट पर अभी शोध चल रहा है।एक जरूरी बात यह की बीच बीच मे वर्तमान सरकार से इस्तीफा जरूर मांग लिया करें क्योकि अनशन के सफल होने के लिये सरकार का सिंघासन हिलते रहना चाहिये।कुछ बाते जैसे चुनाव मे सत्तासीन पार्टी के खिलाफ दुष्प्रचार की धमकी वगेरह वगेरह पर विशेष ज़ोर ध्यान दें।

अब आपके मन में सवाल उठ रहा होगा की फाइदा क्या इस क्षेत्र मे आकर।अजी फाइदा ही फाइदा है।आपको जो नाम चाहिये वह आपको केवल अनशन ही दिला सकता है।पैसे की तो फिकर आप करिए ही मत क्योकि लोग आपके अकाउंट को दान दक्षिणा से भर देंगे।फिर हवाई जहाज से उरते रहिये गाउँ गाउँ।सतर्कता ये बरते की आप दान दक्षिणा अपने खाते मे न लेकर किसी ट्रस्ट या एनजीओ के खाते मे ले।जाहिरहै आपको एक एनजीओ भी बनाना पड़ेगा।आगे की राह आसान है।बस कुछ चुनिन्दा जगहो पर कुछ मुद्दो के लिस्ट के साथ अनशन कीजिये और लोगो को जुटाने की परवाह बिलकुल नहीं करनी।आजकल लोग काफी सस्ते मिलते है बस एक बस का इंतजाम और साधारण सा खाने पीने की व्यवस्था।ध्यान रहे उन लोगो को देशभक्ति का अफीम जरूर खिला दे और अनशन के कुछ दिन पहले फेसबूक जैसे वैबसाइट पर इस अफीम को ज़ोर शोर से बांटने का काम करे।साथ ही कोई मिस्सड कॉल मारने जैसी सुविधा भी करें।जिस से आपको कॉन्फ़िडेंस मिलेगा।

उपरोक्त बातों पर ध्यान से चलें तो आप भी एकदिन वरिष्ठ अनशनकारियों की जमात मे शामिल हो जाएंगे और देश के कुछ बेरोजगारो का भला कर सकेंगे।


Monday 13 August, 2012

योग गुरु रामदेव शून्य से शिखर तक

हरियाणा के छोटे से गाँउ का बालक रामकृष्ण यादव, आज योग गुरु स्वामी रामदेव के नाम से जाना जाने लगा है।योग और आयुर्वेद के क्षेत्र मे स्वामी रामदेव को विश्व भर मे ख्याति तथा सम्मान प्राप्त है।चूंकि बाबा रामदेव बचपन से ही सुभाषचंद्र बोस और रामप्रसाद बिस्मिल सरीखे देशभक्त और क्रांतिकारी विचारों वाले भारत के अमर शहीदों की वीर गाथा से प्रभावित रहे हैं इसलिये यह क्रांतिकारी चरित्र उन्हे देश सेवा के लिये प्रेरित करता रहा है।योग और आयुर्वेद के क्षेत्र मे उनकी ख्याति किसी से छुपी नहीं है।देशभक्ति की भावना ने बाबा को देश के समस्यायों के निवारण हेतु जनता की आवाज बनने का साहस दिया।बाबा रामदेव के आंदोलन को बहुआयामी माना जा सकता है।बहुआयामी से मेरा तात्पर्य है की बाबा ने अपने आंदोलन को किसी एक मुद्दे तक सीमित न रखते हुये अपने आंदोलन मे बहुत सारे मुद्दो को समेटा है।स्वामी रामदेव ने अपने मुहिम को 'भारत स्वाभिमान आंदोलन' का नाम दिया तथा इसकी शुरुआत देश भर मे यात्रा कर लोगो को जागृत करने से हुई।बाद में राष्ट्रमंडल खेलो से जुड़े महाघोटाले पर बाबा ने 2लाख लोगो के साथ दिल्ली मे संसद थाने मे FIR दर्ज कराई।

           उद्देश्य

आंदोलन की पृष्ठभूमि जानने के बाद इसके उद्देश्य को जानना जरूरी हो जाता है।बाबा रामदेव के अनुसार उनका आंदोलन देश को बहुराष्ट्रीये कंपनियो के चंगुल से निकाल कर देश के घरेलू उद्योग धंधे को शशक्त कर सक्षम बनाना है।वह देशवाशियों से स्वदेशी उत्पादो को खरीदने की अपील करते है।बाबा का उद्देश्य भारत के अर्थव्यवस्था को स्वदेशी और मजबूत आदर देना है।बाबा रामदेव भारत के बाहर जमा देश के कलेधन को भी भारत मे लाना चाहते है और इसलिए वे आंदोलन के माध्यम से सरकार पर दबाव बनाना चाह रहे हैं।
                                बाबा रामदेव कभी कभी अतिमहत्वाकांछी भी होते दिखते है और उन्होने अपने आंदोलन को बहुआयामी बनाने के साथ दिग्भ्रमित भी बना लिया।अब उनके पास अनेकों मुद्दे है और हल मे उन्होने अन्ना टीम के टूटने के बाद दिल्ली आंदोलन मे लोकपाल के लड़ाई को आगे बढ़ाने की बात की है।बाबा देश के शिक्षण पद्धति मे हिन्दी,संस्कृत और अन्य क्षेत्रीय भाषा के वर्चस्व को कायम करना चाहते है।

आन्दोलन की सफलता

अब तक बाबा का आंदोलन सरकार को झुका नहीं पाई और काला धन,विदेशी कंपनियो के मामले मे सरकार के कान मे जूं तक नहीं रेंगी।दिल्ली मे चल रहा तत्कालीन आंदोलन को बाबा के आंदोलन का दूसरा चरण मान सकते है।पिछली बार रामलीला मैदान में अनसन के दौरान सरकार की क्रूरता पूर्ण कार्यवाही ने बाबा को अनसल अस्थली छोर कर भागने पर मजबूर कर दिया।पर इस क्रांतिकारी बाबा के लिये सरकार के अत्याचारों से लड़ना मानो बच्चों का खेल हो।बाबा ने एकबार फिर आंदोलन का बिगुल फूंका है और अब देखना है इसबार बाबा सरकार को कितना विवश कर पाते है।

बाबा के राजनीतिक विचार

अपने यात्रा और आंदोलन के दौरान बाबा मीडिया मे अपने राजनीतिक विचार के बारे में बताते रहते है।उन्होने खुद के चुनाव लड़ने वाली बात से हमेशा इंकार किया है पर देश की राजनीति मे एक मार्गदर्शक के रूप मे सक्रिय होने में उन्हे कोई आपत्ति नहीं है।सन्यासी को उन्होने राजा का मार्गदर्शक बताते हुये उन्होने खुद को देश के उत्थान के लिये समर्पित माना है।कभी-कभी बाबा के मुंह से भारतीय जनता पार्टी को चुनाव में  समर्थन देने की बातें भी सुनी गई है।
                    टीम अन्ना के भंग होने तथा उनके राजनीतिक पार्टी बनाये जाने की घोषणा के बाद जनता बाबा के साथ कितना चल पाती है यह तो भविष्य की बातें है पर अब तक के चले आंदोलन और अनसन मे बाबा को जनता का सहयोग मिला है।

चुनौतियाँ

बाबा का सामने अभी काफी चुनौतियाँ है और निकट भविष्य मे आंदोलन के सफल होने की संभावना कम दिखती है।चुनाव के समय विपक्ष की तरह सरकार का विरोध करने वाले बाबा को सरकारी दमन का सामना करना पर सकता है।और बाबा की माने तो उनको सरकार के द्वारा अनेकों षड्यंत्रो के माध्यम से फंसाया जा रहा है।बाबा के सहयोगी बलकृष्ण के फर्जी दस्तावेजों के मुकदमे को भी बाबा उनके खिलाफ सजिस का हिस्सा मानते है।
                       अगर योगगुरु स्वामी रामदेव आने वालों चुनौतियों को स्वीकार कर लड़ सके और जनता का साथ उन्हे मिलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब बाबा का नाम देश के महापुरुषों के साथ लिया जाने लगेगा।पर उसके लिये जरूरत है एक ईमानदार पहल की क्योंकि देश के लोगो को अधिक समय तक कोई निजी स्वार्थवस बांधे नहीं रह सकता।अब तक के सफर को देखते हुये फिलहाल हम इतना जरूर कहेंगे की ये सफर "शून्य से शिखर तक" का था।बाबा जनता के उम्मीदों के शिखर पर है और एक गैर राजनीतिक छवि के साथ उन्होने बहुत सारा काम देश की जनताओं के लिये किया है।संभावनाओं के संसार में शायद बाबा अब एक बदलाव की संभावना के रूप मे सामने आये है।